पिछले कुछ दिनों से भारत और पाकिस्तान पर संभावित-युद्ध के काले बादल मंडरा रहे थे। दोनों के पास परमाणु हथियारों का जखीरा होने की वजह से तबाही और हताशा का अंदेशा न केवल भारत-पाक की जनता पर तारी हो गया है बल्कि लगभग पूरी दुनिया के लिए यह चिंता का विषय बन गया है। अमेरिका के चिकित्सा विज्ञानी इयान हेलफर्ड जो 'इंटरनेशनल फिजीशियंस फॉर द प्रिवेंशन ऑफ न्यूक्लियर वार' और इसकी अमेरिकी शाखा 'फिजिशियंस फॉर सोशल रिसपोंसिबिलिटिस' से जड़े हैं, ने 2013 में छपी अपनी रिपोर्ट 'न्यूक्लियर फैमीन' में लिखा था कि भारत-पाक में सीमित परमाणु युद्ध होने की दशा में भी 200 करोड़ से ज्यादा लोग प्रभावित हो सकते हैं, कृषि और खाद्यान्न आपूर्ति में वैश्विक स्तर पर संकट बन सकता है, जिससे किसी मनुष्य को मिलने वाली रोजमर्रा की पौष्टिकता पर असर होगा। उन्होंने आगे लिखा कि इससे विश्वभर में अकाल की मिथति पैदा होने की चिंता होगी, महामारियों और भीषणता से पैदा हुई स्थितियां आगे लोगों के लिए मुश्किलें पैदा कर सकती हैं। इस अध्ययन में तबाही की मात्रा का जो स्तर बताया है, वह दिमाग को इस कदर चकरा देता है कि इसकी कल्पना मात्र करने से भी इनसान की रूह डरने लगे पिछले दिनों भारत और पाकिस्तान के बीच घटनाक्रम इस कदर तेजी से घूमा है, जिससे उक्त महाविपत्ति की आशंका बन गई थी। उम्मीद है कि हम भयावह नतीजों वाले द्वंद्व के बने माहौल में तनाव को घटाने की दिशा में अग्रसर होंगे। विपत्ति के बने इन काले बादलों के बीच सबसे बड़ी आशा की किरण उस वक्त नजर आई जब पाकिस्तान ने बंदी बनाए भारतीय पायलट को बिना शर्त भारत को लौटा दिया। बहुत से लोग इस संकेत को भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बनिस्बत पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान की बढ़त के तौर पर देख रहे हैं। इमरान खान द्वारा दिए भाषण और इस शांति स्थापना हेतु संकेत का संज्ञान दुनियाभर ने लिया है और इसमें निहित विवेक और तर्क को भरपूर सराहा है। यह समय इस बारे में बात करने का नहीं है कि कौन विजयी रहा या कौन हारा, बल्कि यह घड़ी तो शांति स्थापना हेतु प्रयास करने और युद्ध को न कहने की हैबेशक सीमा के आरपार दोनों मुल्कों में युद्धोन्माद से ग्रस्त लोगों की अच्छी खासी जमात है, खासकर मीडिया और राजनीतिक वर्ग में। इनमें कुछ तो अपनी पसंद के सिद्धांतों से बंधकर आंखें मंदे हए हैं तो कछ निजी आर्थिक हितों, करिअर को बढ़ाने और राजनीतिक मंतव्य से प्रेरित हैं। किंतु अच्छी बात यह है कि इसी दक्षिण एशिया में करोड़ों लोग ऐसे भी हैं जो युद्ध की भयावहता को समझकर अलग-अलग तरीकों से शांति, दोस्ती और भाईचारे के पक्ष में अपनी आवाज उठा रहे हैं। पूर्व पाकिस्तानी प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो की पोती फातिमा भुट्टो का एक लेख न्यूयॉर्क टाइम्स में छपा था। उस वक्त भारतीय पायलट पाकिस्तान के पास था, फातिमा कहती है, 'मैं और मेरे जैसे अन्य बहुत से युवा पाकिस्तानी अपनी सरकार से आह्वान करते हैं कि वह बंदी बनाए गए भारतीय पायलट को शांति स्थापना, मानवता और उसके सम्मान के प्रति हमारी प्रतिबद्धता के संकेत के तौर पर रिहा कर दे। हमारी पीढ़ी ने अपनी पूरी जिंदगी युद्ध के माहौल में गुजार दी है। मैं न तो अपने वतन के फौजियों को मरते हुए देखना चाहती हूं और न ही भारतीय जवानों की मौत देखना चाहूंगी। हम अपने इलाके को अनाथों का उपमहाद्वीप बनना गवारा नहीं कर सकते। फातिमा के ये शब्द 'न ही भारतीय जवानों की मौत देखना चाहूंगी' दर्शाते हैं कि दोनों मुल्कों में युद्धोन्माद से ग्रस्त लोग किस कदर बाकी नागरिकों के मनों में फर्क और दिलों में नफरत पैदा करने की कोशिश करने में जुटे हैं। साझी इनसानियत के लिए कहे गए ये शब्द प्रेरणास्पद होने के अलावा पाकिस्तान में शांति स्थापना के लिए उभरती नई आवाज का सूचक हैं। उक्त शांति-समर्थकों द्वारा दिखाए गए नैतिक साहस ने न केवल उन्हें सेना और राजनेताओं में मौजूद युद्ध-हामियों का विरोध करने की हिम्मत दी है बल्कि शायद ऐसा पहली दफा है कि उन आतंकवादियों के सामने खड़े होने की जुर्रत भी की है जो आम लोगों और सरक्षा बलों पर जघन्य हमले की योजनाएं आए दिन बनाते हैं। शांति की ये नई आवाजें भारत में भी अन्य तरीके से उभर रही हैं। पंजाब के सीमावर्ती गांव में रह रहे मेरे यवा भतीजे ने लिखा है -"पिंडा विच लोक लडाई नहीं चाहंदे' (गांवों में लोग यद्ध नहीं चाहते) । शायद उसे लगता होगा कि जिस तरह टीवी चैनलों के एंकर चीख-चीखकर बदला लेने बात कर रहे हैं, यह लडाई शहरी लोगों के समर्थन की वजह से है और वे उनकी इस भावना को ग्रामीणों तक पहुंचा रहे हैंतब मैंने उसे आश्वासन दिया कि हो सकता है मैं परी तरह से सही न भी हं. लेकिन शहरों में भी अधिकांश लोग यद्ध नहीं चाहते। मैं सोचता हं. यह सही समय है जब हमें 1869 में प्रकाशित लियो टॉलस्टॉय द्वारा रचित 'वार एंड पीस' नामक कालजयी नॉवेल पढना चाहिए। कल 1400 पन्नों वाले इस नॉवेल को ज्यादातर लोगों द्वारा आज तक लिखा गया 'सबसे महान नॉवेल' या 'सबसे बेहतरीन पस्तक' कहा जाता है। इसमें जो चीज मझे पंसद है और जिस पर ज्यादातर लोग सहमत कि यह एक ऐसी किताब है, जिसे आप केवल पढ़ते ही नहीं बल्कि सचमुच में जीते भी हैं।' मैं अपने लेख का अंत साहित्य की इस अद्वितीय कृति की चंद पंक्तियों को उद्धृत करते हुए करना चाहूंगा । 'सारे पदक और सम्मान सैन्य वर्ग को मिलते हैं। लडाई क्या है,ज्यद्ध के मैदान में विजय पाने के लिए क्या चाहिएज? सैन्य-वर्ग का नैतिक आधार क्या है? यद्ध का उद्देश्य है हत्या. लडाई के हथियार हैं जाससी, गद्दारी को बढावा देना, लोगों की बर्बादी, उनकी संपत्ति लटना और छीनना ताकि सेना सडकों पर बनी रह सके. झठ और अफवाहें फैलाना, यह चतर रणनीतिक तरीकों के नाम पर किया जाता है। और सैन्य वर्ग का नैतिक आधार है - अनुशासन के नाम पर लोगों की स्वतंत्रता का हनन, उनको लडाई के तौर तरीकों अनाड़ी और नकारा ठहराना, क्रूरता दिखाना और हरदम अपनी ताकत के नशे में मदमस्त रहना । इस सबके बावजद इनको ही सबसे ज्यादा सम्मानित वर्ग माना जाता है, यह चलन दनियाभर है सबसे बड़ा पदक उसे मिलता है, जिसने सबसे ज्यादा मनुष्यों को मारा होता है ये लोग एकत्र होकर अपने ही जैसों को मारते हैं मानव मात्र का कत्ल होता है और लाखों की संख्या में अपाहिज होते हैं, फिर भारी संख्या में 'दश्मन' को मारने वाले का सम्मान करने के लिए सभाएं आयोजित की जाती हैं।