कुछ साल पहले कॉस्टा गावरा की फिल्म 'आमेन' देख रहा था । नाजी जर्मनी की क्रूरताओं के प्रति ईसाई धर्म की दरियादिली का पर्दाफाश करने वाली इस फिल्म को देखते हुए सोच रहा था कि क्या हिंदुस्तानी सिनेमा की इतिहास-दृष्टि में इतना साहस कभी रहा है? या आगे कभी आ पाएगा? हमारे यहां इतिहास पर आत्ममुग्ध फिल्में ज्यादा हैं। पार्टिशन पर कुछ अच्छी फिल्में जरूर हैं लेकिन उससे पहले के या आधुनिक इतिहास के सुचिंतित पाठ से हिंदी फिल्में वंचित रही हैं। मैं यह बात आज इसलिए कह रहा हूं क्योंकि पिछले दिनों हमारे कई फिल्मकारों ने इतिहास में दिलचस्पी दिखाई है। लेकिन गौर करें तो ज्यादातर फिल्में एक प्रॉपगैंडा को सेट करती नजर आती हैं। इतिहास सिर्फ गर्व करने के लिए नहीं होता, पश्चाताप के लिए भी होता है, सीखने के लिए भी होता हैइतिहास सिर्फ तथ्य नहीं, एक दृष्टि भी होता है। हम आहत भावनाओं वाला देश हैं। साल 2012 में दिल्ली में सामूहिक बलात्कार पर बनाई गई 'इंडियाज डॉटर' से भी हम परेशान हो गए और पिछले साल रिलीज हुई 'पद्मावत' ने भी देश के एक खास वर्ग को उत्तेजित कर दिया था। यह तो अच्छा हुआ कि राजामौलि ने एक काल्पनिक इतिहास कथा में बाहुबली को खोजा। यह भी अच्छा हुआ कि रजनीकांत ने काल्पनिक पीरियड फिल्म कोचडैयान में एनिमेटेड किरदार कियाज्और यह भी अच्छा हुआ कि श्याम बेनेगल ने जुनून में 1857 के विद्रोह से प्रेम का एक पन्ना निकाला। लेकिन इतिहास को उसकी संपूर्णता में हासिल करने का जोखिम हिंदुस्तानी सिनेमा ने कभी नहीं उठाया। मिथकीय कहानियों को लेकर वह ज्यादा सहज रहा है, जैसे रामायण और महाभारत। के. आसिफ ने अकबर के वक्त की कहानी कही। लेकिन वह अनारकली नाम का एक किरदार लेकर आए, जिसे इतिहासकार नहीं खोज पाए। आशुतोष गोवारिकर मोहनजोदाड़ो में सरमन की आसान किस्सागोई के इर्द-गिर्द चक्कर लगाते रहे और 'लगान' में ब्रिटिश भारत में क्रिकेट के मैदान में अंग्रेजों के कर-विधान का नक्शा बनाते रहे। बोस और भगत सिंह पर भी ऐसी फिल्में बनीं, जो इतिहास में कम फंतासी में ज्यादा घुमाती रहीं। इन दिनों इतिहास पर जो फिल्में बन रही हैंमुझे इस बात को कहने में कोई गुरेज नहीं है कि वे मौजूदा सत्ता की विचारधारा को ऐतिहासिक शौर्य का आवरण देने की कोशिशें भर हैं। संजय लीला भंसाली ने इतिहास के झरोखे से हिंदु गौरव गाथाओं को कहने का खतरा मोल लेते वक्त यही सोचा होगा कि हिंद हित की सरकार है. उनके साथ खड़ी होगी। लेकिन पद्मावती के मामले में उनका क्या, सबका ही भ्रम टूट गया। सत्ता अपनी निगरानी में इतिहास के कागज पर रंग उकेरती है। शोध और अभिव्यक्ति को स्वायत्त वह कभी नहीं होने देना चाहती। यह विडंबना है कि झूठी ऐतिहासिक फिल्मों को ट कर दर्शक मिलते हैं। ताजा उदाहरण पिछले साल आई 'परमाणु' का है, जिसने सौ करोड़ से ज्यादा का बिजनेस किया। यह फिल्म भारत के पूर्ववर्ती परमाणु अभियानों पर मिट्टी डालते हुए अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के वक्त 1998 में किए गए पोखरण विस्फोटों का नारा बुलंद करती है। यह उस इतिहास को डिस्क्रेडिट (बदनाम) करना है, जिसमें होमी जहांगीर भाभा के परमाणु कार्यक्रम से जुड़े तमाम प्रयास शामिल हैं। यह परमाणु हथियारों के निर्माण में अपनी पूरी जिंदगी लगा देने वाले भौतिकशास्त्री राजा रामन्ना के उस विश्वास को खारिज करना है, जिसमें भारत के परमाणु शक्ति संपन्न देश होने का सपना शामिल थानेहरू को बदनाम करने के मौजूदा राष्ट्रवादी अभियान में यह फिल्म भी शामिल हो जाती है, जब इस तथ्य को भुला दिया जाता है कि डीएई (परमाणु ऊर्जा विभाग) की शुरुआत आजादी के फौरन बाद हो गई थी और 1959 से रक्षा बजट का एक तिहाई हिस्सा डीएई को मिलना शुरू हो गया था। पोखरण की घटना को भारतीय इतिहास के गौरव का एक अध्याय जरूर कहें, लेकिन उस अध्याय की स्थापना इतिहास के पुराने पन्नों को फाड़ कर नहीं की जा सकती। इतिहास में हेरफेर की इन कोशिशों के बीच 'राजी' जैसी फिल्म का आना सुखद है। देशभक्ति के रंग में बेतरह डूबी हुई दूसरी फिल्मों की तरह राजी आपको पाकिस्तान से नफरत करना नहीं सिखाती। एक दर्द जो दोनों मुल्कों के सान में बटवार के बाद से चिपका हआ ह. उस दर्द को समझना सिखाती है। आज जब पुलवामा आतंकी हमले में जवानों की शहादत पर सियासत जारी है, हमें ऐसी फिल्मों की जरूरत समझ में आती हैइतिहास के नाम पर जारी फिल्मी घालमेल की फेहरिस्त में इंदु सरकार, ठग्स ऑफ हिंदुस्तान और मणिकर्णिका जैसी फिल्में हैं तो शाहिद जैसी ईमानदार कोशिशें भी हैं
अधिकतर निर्देशकों में इतिहास की जटिलताएंI