सच पूछिये तो महिला सशक्तिकरण की आड़ में बहुत कुछ ऐसा भी हो रहा है जिसके कारण जिनके परवाजों को आसमान मिलना चाहिये, जिन चिंगारियों को एक लॉ और सही हवा का रुख चाहिये,उन्हें वास्तविक रूप में मिल पाता है या नहीं ये तो एक विषय है, पर इस नाम जो महिलाएं और बच्चियां भ्रामक पथ पर अग्रसर हुई जाती हैं वह चिंतनीय है.आज महिला शक्तिकरण के नाम पर अखबारों के पेज 3 को देखिये. वस्तु, विचार के बाजारवाद हेतु प्रचार को देखिये, विवाह या किसी अन्य कार्यक्रम में स्त्रियों की साज-सजा को देख लीजिये.ऐसा लगता है कि हजारों वर्ष की गुलामी ने यदि महिला को कैदी बनाया तो आज की आजाद सोच ने कहीं उसे विलासिता का सामान तो नहीं बना दिया. आज इन आजाद हवाओं ने सोचने की शक्ति ही खत्म कर दी है.ऐसे लोगों की भीड़ इतनी भयानक है कि आजादी' की जो सही परिभाषा है वह तो कहीं अपने में घुटते दम के संग अंतिम सांसें गिन रहा है.समाज निर्माण की आड़ में मुख्य इकाई को ही भूलते जा रहे हैं हमजबिखर रहे हैं परिवार और बिखर रहा समाजज्हर कोई एकाकी जीवन जीने को मजबूर है, हर कोई की सोच यही है कि उसे कोई समझता नहींज्भीड़ और बदलाव की दुनिया ऐसी मनमोहिनी कि यदि इसमें उलझे तो उलझते ही चले गए.फलस्वरूप फायदा किसे और नुकसान किसे? फायदा बाजार को, वो इसलिये कि इंसान स्वभाव से तो सामाजिक है पर रिश्तों की अहमियत कमजोर होने के कारण यह समाज की कमजोर कड़ी बन गई है और बाजार हमेशा ही अपने उत्पाद को बेचने हेतु समाज की इन्हीं कमजोर कड़ियों की तलाश में रहता है.अपने मनलुभावन प्रचार के माध्यम से लोगों के मनोविज्ञान को अपना शिकार बना लेता है.मनुष्य भी कबतक अपने पिंजड़े में कैद रहे,पर इसे अब समाज की आवश्यकता नहीं,इसे अपने मन बहलाने के लिये बाजार जो मिल गया गया है.साथ ही पैसों की अकड़ ऐसी की आपस में ही यह संवाद करना कि मुझे किसी की जरूरत नहींक ऐसी सोच से खुद् में खुद को संतुष्ट रखनाना जाने हमें किस ओर ले जाए.एक समय था जब लोगों को समझ और रिश्तों की कद्र थी.एक लिहाज था.लोग अपने परिवार से ज्यादा अपने आसपास से घबराते थे(यह घबराना यानी डर नहीं बल्कि कहें तो लिहाज या सम्मान सूचक था).और,ऐसे में हर परिवार खुद् को सुरक्षित महसूस करता था कि पडोस वाले ने भी अगर कुछ गलत देख लिया तो तत्काल उसे जो करना है वह तो कर ही जायेगा और यथासम्भव परिवार को भी सूचित कर देगा.आज परिस्थितियां ऐसी बदली हैं.।
आग ही आग है यहां