एक ऐसे समय में जब औरत को उत्तम शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक शांति और खुशनुमा माहौल की सबसे ज्यादा दरकार होती है, उससे उसकी नौकरी छीन कर उसे न सिर्फ मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है बल्कि आर्थिक रूप से भी कमजोर कर दिया जाता है। अव्वल तो प्रेगनेंसी का पता चलते ही महिला कर्मचारी को नौकरी से निकाल देना कंपनी को सबसे अच्छा विकल्प जान पड़ता है। लेकिन अगर कभी किसी लिहाजवश ऐसा न किया गया हो, तो उनके कार्य को कम उत्पादक बताए जाने का सिलसिला शुरू हो जाता है। यह सब इस उम्मीद में किया जाता है कि वह खुद नौकरी छोड़ दे। ऐसा केवल छोटे संस्थानों में कार्यरत महिला कर्मचारियों के साथ नहीं हो रहा है, बल्कि बड़े-बड़े संस्थानों में भी महिलाएं गर्भावस्था के दौरान भेदभाव की शिकार हो रही हैं। यह जितना गैर-कानूनी है उतना ही अमानवीय भी है। दरअसल महिलाओं के साथ यह भेदभाव प्लेसमेंट के समय से ही शुरू हो जाता है। छोटी से लेकर बड़ी कंपनियों तक में इंटरव्यू के दौरान महिलाओं से उनके परिवार और शादी के बारे में जानकारी मांगी जाती है। अगर कोई महिला मां बनने वाली हो या हाल में मां बनी हो तो कम्पनी उसे हायर करना अपने पैसे और समय की बर्बादी समझती है। प्रेगनेंसी लीव का कानून होने के बावजूद अधिकतर मामलों में महिला के गर्भवती होने पर कम्पनी उन्हें न तो छुट्टी देती है और न घर बैठे वेतन। जबकि मेटरनिटी बेनिफिट कानन में महिला को गर्भवती होने के दौरान नौकरी से निकाले जाने के बारे में कड़े कानून हैं। इनके अनुसार गर्भधारण की घोषणा के बाद नौकरी से निकाले जाने को सामान्य परिस्थिति नहीं माना जा सकता। मातृत्व लाभ (संशोधन) अधिनियम, 2017 के अनुसार गर्भवती महिला 26 सप्ताह के मातृत्व अवकाश की पात्र होती है। एक शोध में महिलाओं को मेटरनिटी की छुट्टी न दिए जाने के कारण ढूंढ़े गये, जिसमें पाया गया कि कभी महिलाओं को 'कैजुअल', 'डेली' या 'एडहॉक' नियुक्त किए जाने की वजह से, कभी 'अपॉइंटमेंट लेटर' में बदलाव कर और कभी वेतन का मासिक होने की बजाय एक-मुश्त दिए जाने की बिनाह पर मेटरनिटी लीव नहीं दी जाती है। कुछ मामले तो ऐसे मिले जिनमें मेटरनिटी लीव के आवेदन का जवाब बर्खास्त करने की चिट्ठी से दिया गया। दिल्ली की एक मल्टीनेशनल के एचआर विभाग में काम करने वाली अंजलि शर्मा के साथ भी ऐसा ही हुआ। उनका कहना है कि जब वे बेटे के जन्म के बाद दफ्तर वापस लौटी तो उन्हें नौकरी पर वापस भी नहीं रखा गया। मेटरनिटी लीव और इस दौरान मिलने वाली वेतन सुविधाओं को अगर महिलाओं के हक में मिली सहूलियत का हिस्सा मान भी लिया जाए तो भी कामकाजी महिला का गर्भवती होना और बच्चा जनना इतना आसान नहीं है। एक बच्चे की परवरिश और अपने करिअर की चिंता दोनों को बराबर अहमियत देने वाली महिला के लिए जिंदगी किसी पतली रस्सी पर पैरों का संतुलन साधने जितनी मुश्किल हो जाती है। नोएडा की दृष्टि माथुर के मुताबिक-एक महिला जब बच्चे को जन्म देकर दफ्तर पहुंचती है तो उसे कंपनी और कर्मचारियों के सहयोग और सहानुभूति की सबसे ज्यादा जरूरत होती है। लेकिन मां बनने के बाद जब मैं पहुंची तो मुझे ज्यादा जिम्मेदारी वाले कार्य सौंपने से परहेज किया जाने लगा। कार्य सौंपे जाने से पूर्व मुझे संशय भरी नजरों से देखा गया और मेरे मातृत्व को एक कमजोर कड़ी के रूप में मान लिया गया। अक्सर यह देखने को मिलता है कि कानूनी झमेले में पड़ने और अदालती चक्कर लगाने की बजाय महिलाएं अपना इस्तीफा या भेदभाव चुपचाप स्वीकार कर लेती हैं। राजधानी दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में किए गए एक सर्वे में पाया गया कि 18 से 34 फीसदी नौकरीपेशा महिलाएं ही मां बनने के बाद काम पर वापस लौट पाईं। यह एक बड़ी चुनौतीभरी स्थिति है। बड़ी कंपनियों में महिलाओं की जरूरतों के बारे में एक हद तक कुछ सोचा जाने लगा है, लेकिन मध्यस्तर की कंपनियों की सोच ऐसी नहीं है। उनके पास इस तरह की सुविधा देने के लिए वित्तीय क्षमता न होने का सीधा बहाना भी होता है। ऐसे में जब तक महिलाओं की प्रकृति के प्रति सही समझ नहीं विकसित होगी और सरकार की ओर से सकारात्मक एवं व्यावहारिक उपायों को बढ़ाया नहीं जाएगा, वर्कफोर्स में महिलाओं की भागीदारी पर सवालिया निशान बना रहेगा।
नाजुक दौर में अमानवीय भेदभाव